जीवन ना तो पूरा फ़ूलों से भरा है, ना पूरे कांटों से | मेरे जीवन में भी, सभी के जीवन की तरह, उतार चढाव थे, हैं और शायद रहेंगे भी (क्योंकि यह तो जीवन का सत्य है) | और, समय के साथ-साथ मेरे व्यक्तित्व में भी, सभी की तरह, बदलाव आये (और आते रहेंगे)|
व्यक्तित्व की बात से ध्यान आया, मनोविज्ञान में इस्तेमाल होने वाले कुछ शब्दों का – अंतर्मुखी व बहिर्मुखी व्यक्तिव | सरल ढंग से समझें तो बहिर्मुखी व्यक्ति बहुत जल्दी और बहुत सारे दोस्त बनाता है. जबकि अंतर्मुखी व्यक्ति कम दोस्त बनाता है | अगर मैं मुड कर पीछे देखूं तो शायद स्कूल में ज़्यादा बहिर्मुखी थी| समय के साथ साथ थोड़ी उभयमुखी बन गयी (अंतर्मुखता व बहिर्मुखता में संतुलन)| आज की तारीख में मुझे लगता है मुझ में अंतर्मुखी व्यक्तित्व कि विशेषताएं आ रही हैं |
यहां यह भी जानने योग्य है कि ऐसा नहीं कि इनमें से कोई एक तरह का व्यक्तित्व दूसरे से बेहतर है | पर अपने संपूर्ण कल्याण के लिये खुद के व्यक्तित्व को समझकर उसके अनुसार आचरण करना और सोच-विचार व अपने वातावरण में बदलाव लाना ज़रुरी है |
इसके साथ साथ, यह भी सच है कि हम जो मूल रूप से हैं, वो ज़्यादातर वैसा ही रहता है | तो हांलाकी मुझ में परिवर्तन आ रहे हैं, मैं मूल रूप से तब भी वहीं हूं जो मैं थी | जैसे, मुझे मदद करना पसंद है, मैं मुस्कुराती रहती हूं, मैं आशावादी हूं, कार्य के प्रति निष्ठा रखती हूं, मुझे संगीत आकर्षित करता है, और, मेरे प्रियजनों व सहकर्मियों के अनुसार, मैं अच्छा बोलती हूं |
मुझे लगता है कि जब हम किसी के साथ बातचीत स्थापित करते हैं दोनों ही चीज़ें ज़रूरी हैं – कही गई बात (अन्तर्वस्तु) और बात कहने का तरीका /लहजा | चलिये इसको विस्तार से जानें – पर उससे पहले कहना चाहूंगी कि अग्रलिखित बहुत से सुझावों को हम पहले से ही अपनी बातचीत में लागू करते हैं, वहां यह एक अनुस्मारक का काम करेगा; अन्य सुझावों को अब से इस्तेमाल करना शुरू कर दें|
अन्तर्वस्तु
- सकारात्मकता: बात हमेशा पोज़िटिव रखने की कोशिश करें | हम जिस चीज़ पर ज़्यादा ध्यान देते हैं (चाहे विचारों में, चाहे बातों में, या अधिक समय देने के माध्यम से), वो बढ़ती है | ऐसा नहीं कि अपनी तकलीफ़ें साझा ना करें, पर हर समय नहीं और बस गिने-चुने लोगों के साथ ही|
- शिकायत करने से बचें: रिसर्च बताती है कि हमारा दिमाग नेगेटिव चीज़ों को ज़्यादा बढ़ा चढ़ा कर पेश करता है, और पोज़िटिव को कम | बिजली की सुविधा जब कुछ समय भी नहीं होती तो हम शिकायत करने लगते हैं, पर जब होती है तो हम ध्यान भी नहीं देते –खासकर गर्मियों में | हमें शुक्राना मिज़ाज़ अपना कर रखना होगा, तभी दिमाग की इस प्रवृत्ति पर जीत पा सकेंगे | इसमें मदद के लिये रोज़ कुछ चीज़ें गिनें जिनके लिये आप कृतज्ञ हैं |
- निंदा न करें: बुराई करने से हम केवल अपनी ऊर्जा (दोनों आन्तरिक व बाह्य) खराब करते हैं | इसमें दूसरों की निंदा के साथ साथ अपनी निंदा भी शामिल है | अगर आपको किसी व्यक्ति का स्वभाव या उसकी कोई बात / हरकत बहुत ही परेशान कर रही है, तो केवल किसी एक भरोसेमंद व्यक्ति से कम से कम शब्दों में इस नज़रिये से साझा करें कि ऐसे में आपका अपना व्यवहार तटस्थ पर प्रभावपूर्ण / कुशल कैसे रखा जाये | वो कहते हैं न कि हम दूसरों को नहीं बदल सकते पर अपनी प्रतिक्रियाएं बदल सकते हैं | साथ ही साथ अपनी आलोचना या कमियां गिनने का भी परिहार करें |
तरीका
- आत्म विश्वास : खुद में कौन्फ़िडैन्स बढ़ाईये | लोग हमारी बात की कदर तभी करेंगे जब हम खुद अपनी कीमत समझेंगे | याद रखें कि कोई परफ़ैक्ट नहीं होता | कमियों के बावज़ूद आप मूल्यवान थे, हैं और रहेंगे | इसके लिये रोज़ दो मिनट शीशे में मुस्कुराते हुए देखिये और खुद को कहिये कि आप आत्म विश्वास से सम्पूर्ण हैं |
- सरलता :आसान ढ़ंग से और आरामपूर्वक अपनी बात बोलें | कठिन शब्दों का इस्तेमाल न करते हुए बीच बीच में श्रोता / श्रोताओं से प्रतिपुष्टि लें | सादगी, स्पष्टता व सरलता बनाए रखने की कोशिश करें |
- अवाचिक वार्तालाप: हमारे शब्दों के इलावा, हमारी शारीरिक भाव-भंगिमाएं भी अंत:-क्रिया पर असर डालती हैं | शारीरिक मुद्रा सीधी रखें, बात करते समय आंखों का संपर्क बना कर रखें, और बीच बीच में सिर हिलाकर सहमति दीजिये – इससे आपकी रुचि झलकती है |
अंत में मैं कहूंगी कि बात करिये ज़रूर | इससे हमें तरह तरह के विचारों व नज़रियों से वाकिफ़ होने का मौका मिलता है | ज्ञान की वृद्धि के साथ साथ सोचने का दायरा बढ़ता है | और हां, चाहे आप नये लोगों से जुड़ रहे हों या पुराने, विनम्रता बनाए रखें | हर व्यक्ति उतना ही खास है जितने हम, तो जिनसे भी जुड़ें, उन्हें इस खासियत का एहसास करवाएं | इसका सर्वोत्तम रास्ता है ‘एक्टिव लिस्निंग’ -स्फ़ूर्ति से दूसरे पर ध्यान देना | इसमें शामिल हैं सुनना, ज़रूरत पड़ने पर या कुछ न समझ आने पर प्रश्न करना, और असली रूप से अपनी प्रतिक्रियाएं / जवाब देना | वो कहा जाता है न, कुदरत ने हमें दो कान एक मुंह इसलिये दिये ताकि हम सुनें ज़्यादा और बोलें कम; बोल हम वही चीज़ सकते हैं जो हमें पहले से मालूम है, पर सुनेंगे हम वो भी जो हमें नहीं मालूम | तो चलिये आज से ही तय करें और अपने कान, दिल, और दिमाग, खुले रखें |
(इस लेख की लेखिका डा. रीमा बंसल हैं, जो राजीव गांधी राजकीय महाविद्यालय, साहा (अंबाला), में, मनोविज्ञान की सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं |)
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